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स्थापना की आवश्यकता

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् ‘स्व’ की अनुभूति के आधार पर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ‘स्व’ के तंत्र की रचना अपेक्षित थी। यदि बालक के जीवन में स्वाभिमान, स्वदेश, स्वसंस्कृति व इतिहास की गौरवशाली परम्परा के प्रति अपनत्व का भाव जागृत करने का प्रयास किया होता, तो भावात्मक एकात्मकता, नागरिक का स्वभाव बन जाती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में योग्य व्यक्ति का अभाव मुँह बाये खड़ा नहीं दिखाई देता। राष्ट्र निर्माण की अनेक योजनायें बनीं, कल-कारखाने बने परन्तु व्यक्ति निर्माण का कार्य पिछड़ गया।

सुयोग्य, सार्थक एवं संस्कारमय शिक्षा ही किसी राष्ट्र के निर्माण और प्रगति का सर्वोत्तम प्रभावी और एकमात्र साधन है। आज अपने देश में युवकों के चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रही है। अपने देश के गौरव को विस्मृत कर स्वाभिमान शून्य हो पाश्चात्य संस्कृति की ओर उनका रुझान स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। इसका मूलभूत कारण सही एवं सुयोग्य शिक्षा का नितान्त अभाव ही है, अतः देश को आवश्यकता है ऐसे विद्यालयों की जहाँ स्वभाषा में स्वदेशी, स्वसंस्कृति एवं जीवनादर्शों के ज्ञान के साथ बालक के जीवन में अपने महापुरुषों, उनकी कृतियों व गौरवशाली परम्परा के प्रति गौरव एवं स्वाभिमान के भाव जाग उठें। यही भावात्मक एकता का स्थायी आधार बनेगा, भूमि का कण-कण पवित्र बन जायेगा, व्यक्ति की श्रद्धा, आस्था का रूप धारण कर उसकी कर्मशक्ति को प्रेरित कर उसमें से देवत्व प्रकट कर सकेगी। यही राष्ट्र की चिरंजीवी शक्ति होगी।
 

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